राज़कुमार मिश्र ‘प्रतापगढ़िया

 बह्र – 212 212 212

क़ाफ़िया – ‘आ’
रदीफ़ – ‘हो गया’

अपनेपन से जुदा हो गया।
इस ज़माने को क्या हो गया।।

ज़ीस्त पर था जिसे भी यक़ीं ,
संग उसके दगा हो गया।।

जो तजुर्बा मिला ज़ीस्त से ,
उससे दिल आइना हो गया।।

अब तो सच आदमी के लिए ,
सुब्ह का नाश्ता हो गया।।

देखकर दिल उसे इक नज़र ,
सीने से लापता हो गया।।

ज़ीस्त के जैसे मुझसे मिरे ,
दर्द का वास्ता हो गया।।

चांद पर क्या गया आदमी ,
सोचता है ख़ुदा हो गया।।

जानवर ने वफ़ा सीख ली ,
आदमी बेवफ़ा हो गया।।

‘राज़’ का ग़म जहां के लिए ,
मुफ़्त का इक मजा हो गया।।

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