साथ – प्रतीक प्रभाकर

 कई बार आप अकेले होते हैं तो कई बार किसी के संग होते हैं। इंसान एक सामाजिक प्राणी है, वो बिना संगी-साथी के रह भी नहीं सकता। मेडिकल कॉलेज के नेत्र विभाग में जब  आँखों के पुतली की जाँच की जाती है तो हमेशा मरीज़ से किसी को साथ लाने को कहा जाता। चूँकि इस जाँच में आँखों में जो दवा दी जाती है उससे आँखों की पुतली फैल जाती है और कुछ समय के लिए मरीज को कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता। 

जब मरीज को मोतियाबिंद के ऑपरेशन के लिए भर्ती किया जाता है तब भी मरीज के साथ किसी का होना नितांत आवश्यक हो जो मरीज़  के लिए दवा ला सके,भोजन दे सके,अपनत्व दे सके। मरीज़ पिता के साथ पुत्र या मरीज़ माता के साथ पुत्र या पुत्रबधू या बेटी का होना काफी आम है।

पर यह क्या दुखनी देवी नामक मरीज़ के साथ छः वर्ष की पोती? पुत्रवधु के लिए सास की आँखें इतनी जरूरी नहीं। डॉक्टर्स छः वर्ष की बच्ची के भरोसे मरीज़ के दवा डालने की ज़िम्मेदारी नहीं छोड़ना चाहते , सिस्टर्स को हिदायत दी गयी। पर बच्ची थी तेज़, उसने जल्दी ही दवा की मात्रा और समय याद कर लिया। यहाँ तक कि उसने दादी के बाल ठीक किये, दवाओं और कपड़ो को व्यवस्थित किया , खाना खिलाया। 

जब दादी ऑपेरशन थिएटर में थी,बच्ची ने आँखे मूंदे न जाने कितने देव-पितरों को याद किया होगा। कितनी मन्नतें माँगी गयी होंगी। पट्टी खुलने के बाद दादी की बूढ़ी आँखों ने जब पोती को देखा एक निश्छल मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गयी।

दादी को याद हो आया खुद की रोती आँखें जब इसी पोती ने जन्म लिया था और वह पोता चाहती थी, पोती नहीं । तभी पोती ने दादी को काला चश्मा पहनाया , चप्पलें पहनाईं और आँखों की जाँच के लिए  जाँच के कमरे में ले जाने लगी। दादी का हाथ थामे पोती आगे-आगे और दादी पीछे-पीछे आगे बढ़ रही थी।

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