राज़कुमार मिश्र ‘प्रतापगढ़िया’

 बह्र – 1222 1222 122

क़ाफ़िया – ‘अत’
रदीफ़ -‘कर रहे हो’

हसीनों से मुहब्बत कर रहे हो।
ग़ज़ब की तुम हिमाकत कर रहे हो।।

दिखा कर ये अदाएं क़ातिलाना ,
मिरे दिल की मुसीबत कर रहे हो।।

लुटेरे-चोर-डाकू हैं बसे सब ,
जहाँ पर तुम शराफ़त कर रहे हो।।

नहीं है याद , कितने सालों से तुम ,
मिरे दिल पर हुकूमत कर रहे हो।।

उजाला करके रुख से , चांद को तुम ,
बिना ही बात दिक्कत कर रहे हो।।

बुजुर्गों की लगेगी हर दुआऐं ,
अगर तुम दिल से इज़्ज़त कर रहे हो।।

बनाकर ‘राज़’ के दिल में मक़ां तुम ,
विराने से हिफ़ाज़त कर रहे हो।।

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