कलम की लौ – कुशाग्र जैन

 धूप-छाँव में चलते पथिक से,
नित सच की तलाश में निकला है।
भीड़ में भी जो मौन सुने,
वही पत्रकार असली होता है।

ना तलवार, ना कोई ढाल,
बस एक कलम, बस शब्दों का जाल।
अविरत चलती, अविचल रहती,
हर झूठ से करती है सवाल।

कभी पत्र के कोने में छपी,
कभी स्क्रीन पर गूंजती पुकार।
जन-मन की चुप्पी को तोड़े,
बने युग का नया विस्तार।

सूचना की यह उजली धारा,
अज्ञान तम को हरने वाली।
लोकतंत्र की रीढ़ बनी जो,
स्वर बन गई हर पीड़ित खाली।

सत्ता से प्रश्न, समाज का मर्म,
हर संकट में इसका धर्म।
विपरीत पथ पर, निष्पक्ष खड़ी,
वाणी नहीं, विवेक है बड़ी।

आओ इस दिवस पर प्रण करें,
कलम से न न्याय कभी डरें।
पत्रकारिता की यह पवित्र शपथ,
सत्य की राह ना कभी बिसरें।

Post a Comment

0 Comments