शहर में मीरा मौसी और उनके पति रमेश अंकल टीवी पर खबर देख रहे थे। टीवी पर दिखाया जा रहा था कि दुनिया भर में खाने-पीने की चीज़ों के दाम अचानक बहुत बढ़ गए हैं। अफ़्रीका और एशिया के कई देशों में तो बच्चों को भूखा रहना पड़ रहा है। तेल, गेहूँ, चावल, दाल – सब कुछ इतना महंगा हो गया था। न्यूज़ एंकर कह रही थी कि यह सब 'जैव-ईंधन' नाम की एक नई चीज़ की वजह से हो रहा है।
"उफ़्फ़! रोज़ यही खबरें!" मीरा मौसी ने झुंझलाकर रिमोट दूर रख दिया। "यह जैव-ईंधन किस चिड़िया का नाम है, रमेश? इसकी वजह से तो सब कुछ इतना महंगा हो गया है!"
"छोड़ो भी मीरा, क्यों परेशान होती हो," रमेश अंकल बोले। फिर उन्होंने अपनी छोटी बेटी रिया को आवाज़ लगाई, "रिया! बेटा, टिफ़िन ले ले और जा स्कूल, देर हो रही है!"
रिया ने ध्यान से 'जैव-ईंधन' शब्द सुना। उसने अपनी कॉपी के एक पन्ने पर यह शब्द लिख लिया और स्कूल के लिए निकल गई। स्कूल में उसने हिम्मत करके अपनी शिक्षिका, सुमन मैम से इस शब्द का मतलब पूछा।
सुमन मैम ने मुस्कुराते हुए समझाया, "बेटा, जैव-ईंधन ऐसी ऊर्जा है जो हम पेड़-पौधों से बनाते हैं। जैसे, गन्ने के बचे हुए टुकड़े या मक्के और चावल के बचे हुए हिस्सों से बिजली या गाड़ियों का तेल बनता है। यह पेट्रोल-डीजल से ज़्यादा साफ़ होता है और हवा को भी कम गंदा करता है।"
"पर मैम," रिया ने पूछा, "अगर यह अच्छा है, तो इसकी वजह से लोग भूखे क्यों मर रहे हैं?" इससे पहले कि सुमन मैम जवाब दे पातीं, छुट्टी की घंटी बज गई।
रिया जब घर पहुँची, तो देखा मीरा मौसी और रमेश अंकल कहीं जाने की तैयारी में थे। रिया को कुछ समझ आता, इससे पहले वे सब गाँव जाने वाली ट्रेन में बैठकर पहुँच गए रिया के दादा-दादी के गाँव! कोरोमंडल की हरी-भरी पहाड़ियों के बीच दादा-दादी का छोटा सा गाँव था।
रिया ने दादा-दादी और मीरा मौसी-रमेश अंकल की बातें सुनी, तो उसे पता चला कि उसके गाँव की जिस ज़मीन पर चावल उगाए जाते थे, सरकार ने उस पर 'ताड़' के पेड़ लगाने को कहा है। ताड़ के पेड़ों से जो तेल निकलता है, उसी को जैव-ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था। पूरा गाँव परेशान था कि अगर चावल नहीं उगाएँगे, तो खाने की भरपाई ताड़ के तेल से कैसे होगी?
अब रिया को समझ आया कि असली समस्या क्या है! उसने अख़बारों और इंटरनेट पर खोजना शुरू किया। उसने पढ़ा कि कैसे गेहूँ और चावल जैसी खाने की चीज़ों की खेती की जगह अब जैव-ईंधन को ज़्यादा महत्व दिया जा रहा है। यह अच्छा तो है कि प्रदूषण कम हो, लेकिन खाने की खेती की जगह जैव-ईंधन उगाना बिल्कुल ठीक नहीं था। इससे खाने की कमी हो रही थी, ज़मीन की ताकत कम हो रही थी, और यहाँ तक कि जंगलों को भी काटा जा रहा था। जिस ताड़ के तेल को पहले हम खाने में इस्तेमाल करते थे, उसे अब सरकारें ज़्यादा पैसों में खरीदकर दूसरे देशों में बेच रही थीं, जिससे खाने के तेल के दाम भी बढ़ गए थे।
रिया बहुत होशियार थी। उसने एक कागज़ पर ये सारी समस्याएँ लिख लीं। फिर उसने गाँव के सभी बड़ों से उस कागज़ पर दस्तखत करवाए और उसे लेकर ज़िलाधिकारी के दफ़्तर पहुँची।
प्रार्थना-पत्र में रिया ने लिखा कि उसके गाँव के लोगों के लिए खाना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, इसलिए उन पर खाने की जगह ताड़ के पेड़ उगाने का दबाव न डाला जाए। उसने यह भी लिखा कि पर्यावरण को बचाने के लिए ऐसे उपाय ढूँढे जाएँ, जो सभी के लिए सही हों और जिससे कोई भूखा न रहे। ऐसे उपाय किस काम के, जो कुछ लोगों को भूखा मार दें और ग़रीबी में धकेल दें?
रिया की बात सुनी जाएगी या नहीं, यह तो समय ही बताता, लेकिन उसके इस छोटे से प्रयास से सभी को एक बड़ी सीख मिली। हमें हर निवाला खाने से पहले उस अन्न के महत्व और उसे उगाने वाले किसानों के योगदान को हमेशा याद रखना चाहिए। और यह भी कि धरती हमारी माँ है, और हमें उसे हमेशा हरा-भरा रखना चाहिए, ताकि किसी को भूखा न रहना पड़े!
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