भूपेश खत्री

परिंदा हौले से कान में चहका
भोर उग आई ईशान से
पोखर में नन्हीं मछली इतराई
भंवरे जाग उठे कमल को हिला कर बोले
उठ भी जा अब
नित्यप्रति के नृत्य का समय आ पहुंचा

सारी रात शोर करते झींगुर
बोले उलूक को यूं
सो जा खुद भी जुगनुओं को लेकर
हमें भी स्पंदनहीन पंखों में छुपा ले

श्वान रात भर पहरा देकर
समेट सर्वांग सब ठंडी धरा सूंघ
आलिंगन में माटी के उनींदे हो चले

मां जो रंभाई बछड़े को उठाती प्यार से
हर सूं चाट कर प्रेम थी उड़ेलती
हो गई चन्द्र की विदाई तारों को समेट कर
रश्मि रथ पर आ पहुंचे दिवाकर अरुण को ले

सारा जगत उठ पड़ा अचकचा कर
सुखद स्वप्न हुआ तिरोहित
फिर वही हुआ शुरू
अंतहीन चलता जो युगों से

कौन जाने स्वप्न वो होता
जो चलता हर रात निद्रा में
दृष्टा रहता सृष्टि चक्र का
या फिर वो जो शुरू होता हर प्रातः

शायद एक ही स्वप्न के दो पहलू
दिवास्वप्न या रात्रि स्वप्न
मिथ्या ही हैं मिथ्या ही थे
कुहू मिथ्या या ज्योति मिथ्या

देखता कब कोई सुबह एक गौरैया
नन्हें पंखों में उड़ा कर ले जाए
न ही रहे कोई निशा स्वप्न
न ही बचे कोई दिवास्वप्न

Post a Comment

0 Comments