ग़ज़ल - दिनेश प्रताप सिंह चौहान

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यहाँ असलियत ज़िंदगी की,.....यही है,

बहुत सारे ग़म,....सिर्फ़ थोड़ी खुशी है।


लगा शाप धन को है,....इस ज़िंदगी में,

ये दौलत हमेशा ही,....कम ही पड़ी है।


*"बड़े हैं वही,.... ....जो कि रह पाएं नंगे,

नया है ज़माना ,...........नई रौशनी है।*"


अज़ब हाल हैं ,......सारे बाजार रोशन,

मग़र रोशनी,दिल की मन की बुझी है।


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