राज़कुमार मिश्र 'प्रतापगढ़िया'

बह्र - 1212 1122 1212 22/112

क़ाफ़िया - 'आम'

रदीफ़ - 'देंगे'


ग़मों का मेरे यूँ किस्सा तमाम कर देंगे।

मुझे मिटाने का वो इंतिज़ाम कर देंगे।।


दिखे जो एक दफ़ा हुस्न तेरा फिर क़ातिल ,

क़सम है खुद को तिरा हम गुलाम कर देंगे।।


रखो संभाल के मयख़ाने इन लबों के तुम ,

जरा सी छूट पे ये क़त्लेआम कर देंगे।।


ज़फ़ा के बदले वसीयत में हम नहीं कुछ तो ,

ग़ज़ल के शेर सभी तेरे नाम कर देंगे।।


डरेंगी नाम मुहब्बत का लेने से दुनिया ,

यकीं नहीं था वो कुछ ऐसा काम कर देंगे।।


अगर संभाल सको दिल का तख्तोताज़ जो तुम ,

क़सम से दिल का तुम्हें हम निज़ाम कर देंगे। 


बढ़ाके सैलरी में चार पैसे 'राज़' तिरी ,

हरेक चीज के वो दुगने दाम कर देंगे।।



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