बह्र - 1212 1122 1212 22/112
क़ाफ़िया - 'आम'
रदीफ़ - 'देंगे'
ग़मों का मेरे यूँ किस्सा तमाम कर देंगे।
मुझे मिटाने का वो इंतिज़ाम कर देंगे।।
दिखे जो एक दफ़ा हुस्न तेरा फिर क़ातिल ,
क़सम है खुद को तिरा हम गुलाम कर देंगे।।
रखो संभाल के मयख़ाने इन लबों के तुम ,
जरा सी छूट पे ये क़त्लेआम कर देंगे।।
ज़फ़ा के बदले वसीयत में हम नहीं कुछ तो ,
ग़ज़ल के शेर सभी तेरे नाम कर देंगे।।
डरेंगी नाम मुहब्बत का लेने से दुनिया ,
यकीं नहीं था वो कुछ ऐसा काम कर देंगे।।
अगर संभाल सको दिल का तख्तोताज़ जो तुम ,
क़सम से दिल का तुम्हें हम निज़ाम कर देंगे।
बढ़ाके सैलरी में चार पैसे 'राज़' तिरी ,
हरेक चीज के वो दुगने दाम कर देंगे।।
0 Comments