मन हरण घनाक्षरी छंद – भानु शर्मा रंज

 रूपसी का यौवन जो चित्त को चुराये चित 

मोहनी की मोहनी ने मन को चुरा लिया 

चाल गजगामिनी सी दंतकांति दामनी सी 

नैनों से लडा़ के नैंन चैन को चुरा लिया

प्रेम की जो मधुशाला लगती है मुझे हाला 

दिल ढूँढे दिलवाला दिल को चुरा लिया 

यौवन के हुश्न ने जो फेंका ऐसा माया जाल 

लूटा नहीं कुछ किंतु सब ही चुरा लिया 

के मध्य रख , मुरली बजी थी जब , 

हिय में प्रेम की अब , आग जलने लगी। 

मंद मंद समीर जो, छुने लगी है बदन , 

नैनों में भी निदिया जो, अब खलने लगी । 

बिन नीर मीन जब , मचली हो जैसे आज , 

यौवन में वैसे दामनी मचलने लगी । 

कैसी मोहनी थी सखी , मोहन की मुरली में , 

जब भी बजती थी वो , हिय छलने लगी । 

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