मुसलसल ग़ज़ल(उन्वान = ज़िंदगी)
2122 2122 212
इक छलावे की तरह, सी ज़िंदगी,
समझ में,किसके है आई ज़िंदगी।
सब समझते हैं ,.इसे अपना मग़र,
है मग़र,.. बिलकुल पराई ज़िंदगी।
जब कि ,केवल दर्द ही इसमें सदा,
है मग़र ,.सब को ही भाई ज़िंदगी।
सब के नग़मों में,ढली अपनी तरह,
सब ने ,..अपनी तरह गाई ज़िंदगी।
अक्लमंदों को ,..रहा दुख ही सदा,
चैन से जीते ,......अनाड़ी ज़िंदगी।
महल में,ग़मगीन सी दिखती कभी,
झोपड़ों में ,.....गीत गाती ज़िंदगी।
ठहरती इक पल नहीं है,यह कहीं,
है रही ,.दरिया सी बहती ज़िंदगी।
दिनेश प्रताप सिंह चौहान
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