ग़ज़ल - दिनेश प्रताप सिंह चौहान

 सिर्फ़ भ्रम ही ,...जगत ये सारा है,

कुछ न तेरा ,....न कुछ हमारा है।


धूप सा छाँव सा ,....बदलता सब,

लाभ है,......तो कभी ख़सारा है।


ज़िंदगी ,...एक वह सफ़र जिसमें,

मौत ही ,.....आखिरी किनारा है।


हम ने जीवन में,वह गिना ही नहीं,

तुम बिना ,...वक़्त जो गुजारा है।


चाहे रावण हो,... या सिकंदर हो, 

शख़्स हर ,..वक़्त से ही हारा है।


जो भी दरिया,...सदा वही मीठा,

जो समंदर हुआ ,....वो ख़ारा है।


दिनेश प्रताप सिंह चौहान

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