किसी भी सभ्यता का उत्कर्ष काल वहां की साहित्य, संस्कृति और कला की उत्कृष्टता का काल होता है। अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाली भारतीय सभ्यता मे भी साहित्य, संस्कृति और कला को अपनी विशिष्ट पहचान दिलाने वाले अंकुर पल्लवित होते रहे हैं। हिंदी साहित्य की बगिया में भ्रमण किया जाए तो कुछ अंकुर वटवृक्ष की तरह मजबूत से खड़े नजर आते है।
मुंशी प्रेमचंद, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, भारतेंदु हरिश्चंद्र, हरिवंश राय बच्चन, सच्चिदानंद वात्सायायन ‘अज्ञेय’ आदि अनेकों साहित्यकार हिंदी साहित्य की बगिया के ऐसे वटवृक्ष है, जिन्हें देखते हुए बगिया में भ्रमण करने वाला हिंदी साहित्य का रसिक कभी थकान महसूस नहीं करता बल्कि इस वटवृक्ष के तले आकर वह जो सुकून प्राप्त करता है उससे हिंदी साहित्य की वाहवाही करने लगता है।इसी बगिया में से अनेक वटवृक्ष और नवांकुरित होने वाले बीजों को साथ लेकर इस काव्य कलश पत्रिका को संयोजित करने का प्रयास किया गया है। उम्मीद है काव्य कलश पत्रिका हिंदी साहित्य की बगिया में एक ऐसा पौधा बन सकेगी जो साहित्य प्रेमी रसिक बंधुओं को साहित्य की विविध धाराओं का रसपान करा सके।
फूलों से दो फूल मिले,
बनी सुंदर सी माला,
शब्द शब्द संग जब खिले,
अनुभूत होती गीतमाला ।।
शब्दों के माधुर्य का रसपान करना जितना सहज है उतना ही कठिन भी है। ऐसे में शब्द माधुर्य का रसपान करना तलवार की धार पर चलने के समान ही है, अध्ययन करने के क्षण में होने वाली थोड़ी सी चूक अर्थ का अनर्थ तो करती ही है, साथ ही शब्द माधुर्य की सृष्टि की रसातल में ले जाने की बजाए हमें भ्रमजाल में ले जाने लगती है। ऐसे में आवश्यक है की जहां बगिया की वटवृक्ष और अंकुरों की भूमिका बगिया की सौंदर्य सृष्टि के उद्घाटन के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है, वही इस बगिया का अवलोकन करने वाला प्रत्येक पाठक भी सौंदर्य के आस्वादन के समय में महती भूमिका निर्वाह करता है।
मैं इस बात से आश्वस्त करता हूं कि काव्य कलश पत्रिका के रूप में साहित्य सृष्टि का निर्माण करते हुए इस अंक में संकलित साहित्यकार बंधुओं ने जिस जिम्मेदारी से शब्दों की माला को पिरोया है, सभी पाठक मित्र भी उतनी ही गहनता से साहित्य का आस्वादन कर सकेंगे।
अस्तु
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