शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

 

शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

1. अकेले जी लेना

अंतस के जख्मों पर,

हँसी की परत चढ़ा लेना।

चाहे जितने मिले दर्द,

अमृत समझकर पी लेना।

वक़्त-बेवक्त खरोंच जाए,

घावों को जब यादों के शूल।

निंदियाँ पलकों को,

सहलाना जाए भूल।

जिंदगी है गरल चाहे

घूँट – घूँट पी लेना।

खुदगर्जी मचाए बवाल,

अपने ही खींचने लगे खाल।

छलनी हो जाए जिगर,

तब संयम से उसको सी लेना।

अपनों के हृदय हो जाए मरघट,

बंद करले अँखियों के पट।

स्वार्थ का जहर नसों में

दौड़ने लगे,

डसने लगे जब अपने ही

‘शकुन’अकेले ही जी लेना।

2. खाली झोली

कनक रश्मियों की,

सूरज ने गठरी खोली।

फुदकने लगी आँगन में,

गौरय्या भोली।

सोई गृहणियाँ चादर तान,

बासी आँगन करे गुहार।

अब तो दो मुझको बुहार।

कैसा आया जमाना?

साँझ-ढले,जाम चढ़ते।

रातें रोशन हैं, 

दिवस है गमगीन,

सूरज शीश चढ़े,मनुज तब उठते।

टकटकी लगाए देखे,

ठाँवड़े  आस से।

आहें भरते,

संस्कारों के ह्रास से।

मोगरे की महक,

चौखट को चूम रही।

मस्त-समीर चहुँओर

घूम रही।

जाग मनुज जाग,

जो सोया रहे।

उसकी रहे खाली झोली।

चीं-चीं कर गोरैया बोली।

3. पछुआ हवाएँ

बटोरे थे हमने महकते सुमन,

किस्मत का फेर,

वो कागज के निकले,

तूफां के अंदेशे से नाविक के,

अरमान लगे काँपने अब।

वक्त की अँगीठी पर, 

जली-रोटियों-से-स्वप्न,

धौंकनी सी साँसें,

लगी उनको ढाँपने अब।

बोले करेले-सी-वाणी, 

मर गया आँखों का पाणी,

ठूँठ हुआ मन-दरख्त

अपने ही लगे हम को जाँचने अब।

पछुआ पवन का उन्माद,

उड़ा ले गया लाज का घूँघट,

रीता मर्यादाओं का घट,

अमूल्य घड़ियाँ बीत गयी, 

ढाई आखर नहीं बाँचने अब।

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