निर्मोही – विजय शंकर प्रसाद


एक अजनबी और उसका संसार,
भीड़ में तन्हा फिक्रमंद प्यार ।
निर्मोही पथ पर अग्रसर सार,
वक़्त को लेकर भी विचार ।
अकेलेपन कीमती हवा है यार,
सितारों के बीच चांद स्वीकार ।
फलक में सूरज भी आधार,
किसे नहीं है तकरार अधिकार ?
हर हैसियत को मिला आकार,
कटु-मधुर अनुभव है हमें स्वीकार ।
शिखर तक कौतूहल पैदा बारम्बार,
मंजिल तक पहुंचकर निशान यादगार ।
सफ़र में सागिर्द नहीं अहंकार,
परिंदों के भी धरा पर उतार !
अंधेरी रात में न जुगनू लाचार,
प्रियतमा से रहें न कुछ उधार !!
लहरों में जिंदगी के मंजर तार-तार,
ख्वाहिशें नदी-सागर और मीन तैरती पहाड़ ।
अश्क आंखों में यौवना है धिक्कार,
श्रृंगार कर इंतजार नहीं लौटाता बहार ।

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