छंद कुंडलिया
आखिर पूरी हो गई,......जीवन यात्रा मित्र,
पर ईश्वर का काम हर,हमको लगा विचित्र,
हमको लगा विचित्र,...भले तो दुख में सारे,
दुष्ट खा रहे खीर,..........भले रोटी के मारे,
दुष्टों के घर रोज,.खुशी घन छाते घिर घिर,
समझ न आई मित्र,ईश की इच्छा आख़िर।
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